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भगवान बाबा  से वार्तालाप
 


बुद्ध के उपदेश -

हिस्लप :-     बुद्ध के उपदेशों में , यदि कोई गल्तियाँ थीं, तो वे क्या थीं ?

साई    :-     एक गलती तो यह थी कि उन्होने संघ में स्त्रियों को अपने निकट आने दिया । वह स्त्री  ही थी जिसने उन्हें माँस,विषाक्त माँस दिया जिससे कि उनकी मृत्यु हुई  ?

हिस्लप :-     यह उनका रिवाज था कि जो कुछ भी उनको भिक्षा पात्र  में भिक्षा के रूप में दिया                      जाता था वे स्वीकार कर लेते थे ।

साई    :-     यह दूसरी गलती थी । यहाँ पर उन्होने अपने उपदेश को कार्य रूप देने में असफल हुये ।     उनका उद्देश्य '' अहिंसा" था - सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा का भाव । 

हिस्लप :-     बुद्ध ने ''निर्वाण'' की बात की जो कि अन्तिम लक्ष्य था । स्वामी जिस मुक्ति की   बात करते हैं, क्या वह उससे अलग है ?

 साई   :-      यह वही है - निर्वाण, मुक्ति, साक्षात्कार मात्र  अलग -अलग शब्द हैं ।

संतुष्टि एवं आध्यात्मिकता की आवश्यकता

( टिप्पणी : अनंतपुर जाते समय, हम लोगो की मुलाकात एक अंधी  स्त्री  से हुई । बाबा ने उसे पैसा दिया और उसने जवाब दिया '' साई राम,स्वामी " भगवान    बाबा को अनंतपुर जाकर दो वर्ष  हो गये, पर बाबा के बोले बगैर ही उस अंधी ने स्वामी को पहचान लिया )

हिस्लप   :-   यह खुश लगती हैं ।

साई      :-   यह आजन्म अंधी है पर हमेशा खुश रहती है । इसकी कोई चिंतायें नही हैं ।

 हिस्लप   :-   यह कैसे हो सकता है ? उसके जीवन शैली को देखिये, उसका जीवन दुखमय  होना चाहिये ।

 साई      : -   क्यों ? उसकी कोई इच्छायें नही हैं और वह संतुष्ट रहती है । उसको आँख  रहने वाले व्यक्ति के जीवन के बारे में पता भी नहीं है । वह यह नहीं सोचती है  कि दूसरे उस से अलग हैं । उसका परिवार उसकी स्थिति से चिंतत रहता हैं, पर उसकी कोई भी चिंतायें नहीं हैं ।

 साई      :-    मन की तुलना करने की हमेशा की प्रवृति के कारणा इच्छायें उत्पन्न होती हैं । मुख्यतया आँखे ही, दृष्टि ही मन के लिये तुलना करने के अवसर प्रदान करती है   । वह  स्त्री अंधी है, अत: उसका मन तुलना करने में व्यस्त नहीं रहता  अत: उसकी इच्छायें नहीं पैदा होती । 

 

हिस्लप   :-    यदि वह खुश और संतुष्ट रहती है, क्या मृत्यु के बाद वह जन्म मरण से मुक्त हो जायेगी ?

साई      :-    नहीं - उसके लिये आध्यात्मिकता जरूरी है ।

 

विपश्याना ध्यान

हिस्लप :- यह एक महत्वपूर्ण बात जानने योग्य है कि स्वामी ने कहा कि इच्छाओं का जन्म तुलना करते हुये मन से होता है ।  भगवान बाबा से मिलने का सु-अवसर प्राप्त होने के पहिले मैं और मेरी पत्नी बर्मा जाते थे  ताकि वहाँ पर विपश्याना ध्यान कर सकें । वह '' अनापना '' से शुरू होता है ।

साई    :- मुझे पता है- जहाँ पर कि नाथ और होंठ मिलते हैं । 

हिस्लप  :- जब मन उस बिन्दु पर केन्द्रीकृत रहने लायक ध्यान की स्थिति आती है तो ध्यान कराने वाला गुरू उसे सिर की ओर ले जाता हैं ।

साई   :- तब ऐसा अनुभव होता है कि सिर पर चीटिंयाँ चढ़ रही हैं ।

हिस्लप  :-  हाँ स्वामी  जब भी मैं अपना ध्यान वहाँ ले जाता था तो अत्याधिक जलने जैसा  मुझे अनुभव होता था । उस जलने के अनुभव को ऊर्जा का अर्ध्वगमन और शरीर जिन सूक्ष्मतम कणों का बना हुआ है, उनका विसंघटन माना जाता था । इस जलने की अनुभूति को चेतना द्वारा देखते रहने से सभी कुसंस्कार जल जाते हैं । क्या उस ध्यान सिखाने वाले गुरू की बात सही थी ।

विश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका

साई  :- इससे कोई फर्क नही पड़ता कि ध्यान सिखाने वाला गुरू सही था या गलत - तुमने उसके कहे अनुसार काम किया और तुम्हें फल मिला  एक कहानी इस प्रकार है । एक गुरू के पास एक महिला  शिष्या थी । गुरू कृष्ण की पूजा करता था और उसके पास एक शिवलिंग था जिसकी वह प्रति दिन पूजा करता था । हर दिन पूजा के समय तक शिष्या नदी के इस पार और उस पार रहते थे । बहुत अधिक पानी गिरा और नदी में बाढ़ आ गई । शिष्या को नाव के लिये निरीक्षण करना पड़ा और गुरू  के पास दूध लाने में उससे देर हो गई । गुरू बहुत नाराज हुआ कि समय पर पूजा, दूध आने में देरी के कारण नही हो सकी । उसने शिष्या से कहा - '' तुमसे देरी इसीलिये हुई  कि तुम्हें कृष्ण के नाम पर विश्वास नहीं है । उसके पवित्र  नाम को लेते हुये और उस पर विश्वास रखकर तुम नदी पर चल कर आ सकती थीं और तुम्हें नाव का इंतजार नहीं करना पङता ।

         अगले दिन,शिष्या ने, अपने गुरू के शब्दों को भगवान का शब्द मानकर नदी पर चल कर आई और समय पर दूध ला कर दिया । दो तीन दिनों के बाद गुरू को  उत्कंठा हुई और उसने शिष्या से पूछा कि बाढ़ के बाबजूद भी वह समय पर दूध कैसे ला रही है ? उस शिष्या ने जवाब दिया कि जैसे कि गुरू का निर्देश  था, निरंतर कृष्ण नाम का जप करते हुये वह नदी पर चल कर आ जाती है ।

         गुरू को इस बात पर सहसा विश्वास नहीं हुआ । वह रहस्यमय ढंग से शिष्या के  जाने के बाद उसके पीछे गया । उसको आश्चर्य हुआ कि बिना हिच किचाये, स्त्री ने चल कर नदी पार कर लिया । तुरन्त गुरू ने निर्णय लिया कि वह भी यही करने की कोशिश करेगा, अपनी घोती को घुटनों के ऊपर तक चढ़ा कर पानी में पैर रखा  पानी ने उसे नहीं सम्हाला और वह डूब गया । 

 

  इस कथा से विश्वास की महत्वपूर्ण भूमिका स्पष्ट होती है । उस स्त्री को पूर्ण  विश्वास था  और उसे लगा भी नहीं कि साड़ी को गीला होने से बचाने उसे उठाने की भी जरूरत है ।  जब कि यही विश्वास गुरू में नहीं था ।

 

संघर्ष से निपटना

हिस्लप :-  स्वामी व्यक्तियों के बीच संघर्ष  अनपरिहार्य प्रतीत होता है । क्या किया जा  सकता है ।

साई    :-  संघर्ष या विवाद या वैचारिक मतभेद उभर सकते हैं, पर वे उस विषय तक ही  सीमित रहना चाहिये और इन्हें अन्य विषयों या विवादों में फैलने से रोकना चाहिये । यदि इसे बढ़ने दिया गया, क्रोध और गहरा होगा, कड़वाहट बढ़ेगी और  तीव्र घृणा पैदा होती है और इसे बढ़ने दिया जाये तो तब तक बढ़ता है जब तक कि वह उसके पूरे जीवन को प्रेम से न भर दे । यह आध्यात्मिक सत्य हैं । यदि  दो व्यक्तियों में संघर्ष हो या वैमनस्य हो और वे उसो वहीं तक सीमित रखते हुये आगे न बढ़ने दें, तो कुछ समय के अंदर दोनो एक दूसरे के प्रति नर्म पढ़ेगें और दोनो के बीच बहुत जल्दी सामंजस्य आ सकेगा या सबसे बुरा यह होगा कि संघर्ष या विवाद उसी विषय तक सीमित रहेगा और अन्य विष्यों या लोगों तक नहीं फैलेगा ।

         वैमनस्य या वैचारिक मतभेद को सीमित करने की आदत तथा प्रेम को बढ़ाने की आदत किसी भी, संगठन को एक लयबद्ध एक्ता की ओर ले जाते हैं । यह सामांजस्य समाज की प्रशंसा का कारण बनेगा और तब बड़े कार्य हो सकेगें ।

 

हर व्यक्ति को जो संगठन में है, हर कार्य साई के लिये करना चाहिये । यदि हर कार्य साई के लिये किया जाता है तो हर कार्य से साई जुड़ेगे और ऐसा हर कार्य सफल होगा । यदि हर कार्य साई के लिये होगा, तो हर कर्त्ता साई के साथ होगा । तब कर्त्ता साई से अलग नहीं होगा । जो ब्रम्ह ही है । साई जो कि विघटित है जीवों में, वह जीव है (आत्मा) साई अनंत में विघटित हो अनंत बन जाता हैं ।  जीव यदि साई में विघटित हो तो अनंत हो जाता है ।आध्यात्मिक जीवन के संबंध में, किसी भी समस्या के निदान के लिये सबसे पहले अपनी स्थिति को ध्यान में रखकर उस स्थिति को बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिये, यदि इसके बाद भी दूसरा व्यक्ति फिर भी तुम्हें या संगठन को ठेस पहुँचाता है या उल्लंघन करता है, तो उसे एक बार,दो बार या तीन बार चेतावनी दी जा सकती है । यदि अब भी कोई सुधार नही होता है तो उसे संगठन के पद से निकाला जा सकता है । अब उस व्यक्ति  को  क्षमा  कर देना चाहिये । इस तरह  क्षमा करना उस व्यक्ति में भी परिवर्तन लायेगा और  क्षमा करने वाले में भी  जैसे उदाहरण  के लिये, समझें कि कोई व्यक्ति कुछ ऐसा करता है जो कि स्वामी के हृदय में बाधा हो । इस बाधा को दूर करने की दवा क्या है ? दवा   क्षमा है । क्षमा करना ही वह दवा है जो कि स्वामी के हृदय से इस बाधा का निर्मूलन करेगा 

 

जिन व्यक्तियों के पास अथाह बुद्धि है वे लोग कई विचारों को या धारणाओं को मन में संजोये रखते है और इसी से शंकायें पैदा होती है । एक सीधा साधा, साधारण व्यक्ति  सत्य को स्पष्ट जानता है और संशयों को नही पालता । सर्वोत्तम यह है कि विश्वास को कैलाश पर्वत या अग्नि पर्वत जैसा होना चाहिये ताकि इसमें जरा भी संशय न पैदा हो । जहाँ बुद्धि के रूप ऊर्जा का भंडार है, उस ऊर्जा को संरचनात्मक कामों में लाना चाहिये । 

हिस्लप  :- अमेरिका के साई संगठन में, हर पदाधिकारी को अपना खर्च स्वयं वहन करना  पड़ता है। (अर्थात) संगठन के कार्यों के लिये खर्च वापिस नहीं किया जाता ।

 साई    :- यह सही है । यदि कुछ और अधिक खर्च हो तो वह अमेरिका के साई संगठन से  आना चाहिये ।

हिस्लप  :- अमेरिका में लगभग ५०,००० या इससे ज्यादा साई भक्त हैं, पर लगभग १,००० ही  संस्था के केन्द्रों में है । संस्था की महत्ता कम लगती है । फिर संस्था के बारे में क्यों ध्यान देना चाहिये । जैसे कि संयुक्त राष्ट्र में भी असंगठित साई भक्त हैं ।

साई    :- संस्था व्यक्तियों को एक अवसर देता है ।  अमेरिका और अन्य देशों में कई  लोग हैं जो साई के बारे में जानते हैं, साई पर विश्वास करते हैं, साई के बारे में,साई के लीलाओं के बारे में, साई के उपदेशों के बारे में बातें करते हैं पर संस्था में सम्मिलित नहीं होते । संस्था कुछ अनुशासन लगाती है और आवश्यकतायें उन पर लगाती है जो वे अपने ऊपर लेना नहीं चाहते ।

साई संगठन अभी बहुत छोटा लग सकता है, पर जैसे जैसे समय बीतेगा, यह इतने लोगों को आकर्षित करेगा कि साई संगठन में सामान्य व्यक्तियों को स्थान देने के लिये जगह नहीं रहेगा । सभी स्थान साई संगठन के व्यक्तियों  को ही दिये जा सकेगें । अत: साई संगठन की सदस्यता एव अवसर प्रदान करती है ।

उदाहरण  के लिये, तुम अमेरिका के साई संगठन के अध्यक्ष  हो और बोज्जानी इस संगठन का संस्थापक पदाधिकारी है । इसीलिये तुम स्वामी के साथ  में हो और लगभग नौ घंटो का साक्षात्कार   तुम्हें मिल रहा है । जब कि साक्षात्कार  के कमरे में मात्र  १/२ घंटे का साक्षात्कार  प्राप्त होता है ।

विश्वास और शंका

साई   :- विश्वास अग्नि पर्वत जैसे या हिम पर्वत जैसे है । वहाँ और कुछ नहीं होता ।कोई भी शंका नहीं होती ।

हिस्लप  :- शंका क्या है ?

साई    :- शंका उलझन या भ्रम है । जब पुस्तकें पढ़ी जाती हैं तो एक लेखक एक बात करता है और दूसरा लेखक दूसरी बात करता है । एक धारणा को पकड़ो और उसे अपनाओ राम चंद्र जी का एक संकल्प, एक ही मन और एक ही बाण था ।

हिस्लप   :- तब विवेक की क्या कोई भूमिका है ?

साई    :- विवेक का काम है कि वह अंतकरण की ओर देखे ।

हिस्लप  :-  जब किसी रास्ते को चुनना होता है, क्या कई धारणाओं में से तर्क द्वारा सही     धारणा को न चुना जाये ?

साई   :-  नहीं  धारणाओं द्वारा नहीं , अन्त: करण द्वारा, आत्म विश्वास द्वारा- दूसरे का अनुसरण मत करो । अपनी आत्मा का अनुसरण करो । दूसरे का अनुसरण करना, गुलाम बनना है । तुम कौन हो ?  तुम न शरीर हो, न मन हो, न ही आत्मा हो ।      क्योंकि ''मैं आत्मा हूँ '' कहने मे  ''मैं '' और '' आत्मा''  दो है - नेति - नेति  कहा जाता है । यह भी नहीं - यह भी नहीं - वेदों का यही पथ हैं  । स्वामी तुम्हारे हृदय में हैं । उन्हें वहीं हैं ऐसा समझकर अनुभव करो ।

 

भगवान का प्रकाश

हिस्लाप      :-   भगवान का प्रकाश क्या है स्वामी ?

 

साई   :-  जब सत्य का प्रेम से मिलना होता है, वही भगवान का प्रकाश है । यह बाहरी   प्रकाश नहीं है जैसे कि बिजली के बल्ब का प्रकाश  यह आंतरिक प्रकाश हैं ।

 हिस्लप  :- स्वामी  इस प्रकाश में कैसे रहें ? यहाँ हर व्यक्ति  इस प्रकाश में रहना चाहता है और सारे दिन इस प्रकाश में रहना चाहता है ।

 स्वामी  :- जब किसी अंधेरे कमरे में तुम ''टार्च '' से देखते हो, तुम हर वस्तु को देख सकते हो, सिवाय तुम्हारे । तुम अपने आप को नहीं देख सकते । तुम अपने आँखों से देख रहे हो पर जब ''टार्च '' तुम्हारी तरफ करें तो कमरे की वस्तुयें तुम्हें नहीं दिखाई देंगी । जब तक कि तुम्हारा ध्यान उस प्रकाश पर है जो दुनिया को प्रकाशित करता है, तुम भगवान के प्रकाश का आनंद नहीं ले पाओगे ।

हिस्लप  :- भगवान के प्रकाश में होने के लिये, सत्य और प्रेम का ऐकीकरण - यह कैसे  संभव है?

साई     :- ध्यान -ध्यान का अर्थ अंतर्मुखता है । यही प्रकाश है ।

( टिप्पणी इसका अर्थ   यह निकल रहा है कि जब तक हमारा ध्यान सांसारिक जीवन पर है, हम संसार  को ही देखते हैं और भगवान को नहीं )

साई         :- मैं मात्र  अच्छाई देखता हूँ । हर व्यक्ति  ईश्वर है । मात्र  कुछ बुरे कार्य हो सकते हैं ।

हिस्लप  :- यह समझना बहुत कठिन है, स्वामी ।

साई      :-  नही, कठिन नहीं है । सरल है।


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पहली कड़ी - अंक - ०१ नवम्बर २००८
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