पहली कड़ी - अंक - ०१
नवम्बर २००८ |
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साई गीता की अमर और असाधारण कथा _________________________________________________________________ " साई गीता और मेरे संबंधों में शुरू से ही घनिष्टता रही है । ये संबंध शुद्ध रूप से आत्मीय थे । " ये मर्मस्पर्शी शब्द स्वामी ने 7 जून 2007 को अपने विश्वविद्यालय के छात्रों और कर्मचारियों के बीच एक असार्वजनिक सभा में कहे ; सुनते ही सभागार में गहरा ,पूर्णरूप से अभेद्य सन्नाटा छा गया । वे बोले ,“ यह मत सोचो कि साई गीता की बात करते समय मैं भावुक हो जाता हूं ।” उनका स्वर अस्थिर और उत्कट संवेदना से अभिभूत था । स्वामी की उस गंभीर मुद्रा को देखकर सबका हृदय डूबने लगा, इतना भारीपन लगने लगा कि नाजुक दिल की धड़कन ही रूक जाये । प्रत्येक के मन में , ऐसी गहरी शून्यता महसूस होने लगी जिसमें जीवन का अस्तिव ही समा जाये ।
हर व्यक्ति उत्सुकतापूर्वक दिल थामकर स्वामी के बहुमूल्य उद्ग़ारों की प्रतीक्षा में बैठा था, तभी उनके दिव्य वचन निकले , “साई गीता की चर्चा करते समय मैं दुःखी नहीं हूँ । वस्तुतः मुझे किसी भी प्रकार का दुःख या चिंता नहीं है ,किसी बात का पश्चाताप नहीं है । यह तो केवल वात्सल्य है - सर्वोत्कृष्ट माँ का प्रेम ।" यह वैसा ही आत्मस्फूर्त और प्रगाढ़ प्रेम है जो माँ अपने नवजात , भोले-भाले शिशु के प्रति अनुभव करती है । वह पूर्णतः माँ पर ही निर्भर है । माँ की गोद ही उसका एकमात्र आश्रय है । उसके चेहरे पर दिव्यत्व की आद्य छवि स्पष्ट रूप से झलकती है । बच्च़ा जैसे-जैसे बड़ा होता है, उसका शारीरिक और बौध्दिक विकास होता है , तर्क शक्ति के कारण उसकी दिव्य निर्मलता धीरे - धीरे घटती जाती है, घुलती जाती है और उसके प्रेम की आत्मस्फूर्ती क्षीण होती जाती है । लेकिन साई गीता के साथ ठीक इसके विपरीत हुआ ।
साई गीता का पुनर्जन्म जन्म के कुछ सप्ताह बाद ही साई गीता का प्रशांतिनिलयम में आगमन हुआ था । बीते दिनो को याद करते हुए उसी अवसर पर स्वामी ने बताया, “कुछ दशकों पहले मैं बंगलूर से लौट रहा था । पास के ही जंगल में `खेद्धा` किया जा रहा था । इस प्रक्रिया में हांथियों को पकड़ने के लिए बड़े-बड़े गड्ढ़े खोदकर उन्हें ऊपर से घास से ढ़क दिया । इसके बाद ढोल बजाकर तथा हल्ला कर के हाथियों का पीछा किया गया । बेचारे जानवरों का पूरा झुंड आया और कई उन गड्ढ़ों में गिर गये । इनमें से एक बच्च़ी बच गई । वह बिना माँ की थी और चिल्ला रही थी । उसने खाना-पीना बंद कर दिया । अत्यंत निःसहाय अवस्था में , वह असमंजस में थी कि क्या करें ?" उसके बारे में सुनते ही स्वामी ने उसे तुरंत स्वीकार कर लिया जैसे कि दैवी माँ अपने प्यारे बच्च़े की राह ही देख रही थी ।
स्वामी ने बताया, “ मैंने अपनी उंगली पर शहद लगाकर उसके मुंह में दी और वह उसे चूसती रही । फिर मैंने उसे बोतल से दूध पिलाया । इसके बाद, वह अपनी माँ को भूल ही गई । मैंने उसका नाम साई गीता रखा ।” एक प्रक्रार से यह इस बच्च़ी का बपतिस्मा हो गया । ईश्वर की सर्वाधिक विशिष्ट बच्च़ी के रूप में यह उसका पुनर्जन्म ही था । उस समय उसकी ऊंचाई मुश्किल से दो फुट थी । स्वामी याद करते हैं,”रसोई घर , भोजन कक्ष ,भजन मंडप, बैठक या स्नानघर , हर जगह वह मेरे पीछे-पीछे आ जाती थी । पूरी तरह से मेरी देख-रेख में ही वह बड़ी हुई । ” सचमुच ही,वह युवा स्वामी के लिए आनंद का खजाना ही थी। साठ के दशक में स्वामी की फुर्ती देखकर अधिकतर भक्त हैरान रहते थे और केवल कसरती लोग ही उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते थे। उन दिनो चाहे वे चित्रावती ते किनारे जायें या आश्रम का ही तूफानी दौरा करें , साई गीता का साथ ही उनका मनपसंद मनोरंजन का साधन था ।
आनंदमय जोड़ी श्री चिदंबरम कृष्णन 60 के दशक में नियमित रूप से आश्रम में आते थे और उन्हें दैवी सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त था | उन्हें याद है, उन्हे याद है , “ ऊंचाई में वह बाबा से आधी थी इतनी छोटी कि बाबा सहज ही अपनी कार में ले जा सकते थे ।” स्वमी ने भी हाल ही में अपनी वार्ता में बताया कि साई गीता उनकी गाड़ी की पिछली सीट पर उनके साथ ही यात्रा करती थी ।जैसे छोटा बच्च़ा अपनी माँ से पलभर भी अलग नहीं रह सकता, साई गीता य़भी हमेशा स्वामी के साथ ही रहना चाहती थी और स्वामी को भी उसमें आनंद प्राप्त होता था । यह छोटा सा प्राणी स्वामी के शयन कक्ष के बाजू में ही एक बड़े पेड़ के नीचे रहता था और पूरे समय स्वामी खिड़की में से उसे देखते रहते।भूख लगने पर वह ऊपर देखती और चिल्लाती "आह!”, और स्वामी नीचे आकर उसको शांत करने के लिए हर आवश्यक बात करते ।
चिदंबरम याद करते हैं, हर दिन शाम-सुबह स्वामी उसके साथ दिखाई देते वह स्वामी की आज्ञा का पालन करती स्वामी के बुलाने पर, छलांग लगाते हुए वह उनके पास आती, उसके बाजू में खड़े होकर स्वामी उसकी सूंड हिलाते, उसको थप थपाते, दुलारते कभी-कभी स्वामी दौडकर दूर चले जाते और इस नन्हे से चौपाये को छोटी- छोटी छलांगें मारते, मनमोहक उछल कूद करते हुए अपने पास आते देख बहुत आनंदित होते निश्चित ही यह दृश्य सबके मन को भाता भक्तों के लिए यह उनकी प्रशांति यात्रा का सर्वाधिक उत्तेजनापूर्ण अंश होता । उन दिनों साई गीता की दिनचर्या स्वामी की गतिविधियों से ही अंतर्संबध्द होती । बचपन से ही साई गीता सच्च़रित्रता की मूर्ति रही प्रति दिन प्रातः काल में सबसे पहले यह छोटी सी हथिनी मंदिर की नौ परिक्रमा करती, फिर प्रशांति मंदिर के सामने स्थापित उन दिनों भगवान गणेश की कांतिपूर्ण श्वेत प्रतिमा को प्रणाम कर स्वामी की प्रतीक्षा करती जैसे ही दरवाजा खुलता और उसे स्वामी दिखाई देते वह घुटने टेक कर उनके चरणों में सर नवाती अधिकतर, स्वामी का प्रेम और आशीर्वाद पाने के लिए, उनके द्वारा थप थपाये जाने के लिए वह एक विचित्र सी सुहावनी आवाज निकालती बाद में, स्वामी अपने हाथ से उसे केले और फल खिलाते और उसके बाजू में खडे होकर बच्चों को उसे खिलाने का अवसर देते कई छोटे-छोटे बच्चे इस अवसर की प्रतीक्षा में वहां खडे रहते और जब स्वामी की निरंतर देखरेख में वह उनके द्वारा दिये गये केले स्वीकार करती तो रोमांचित हो जाते अपनी मां के हाथों, भोजन के उपरांत साई गीता रेत में खेलने और नदी में कूदकर तरोताजा होने के लिए चित्रावती की ओर बढ़ती रखवाली के लिए उसके साथ आठ साल का बालक रहता ।
प्यार की रेत और स्वामी की छाया यह छोटी सी हाथी की बच्ची चित्रावती के किनारे अपने शरीर पर कीचड उछालती हुई रेत में आनंद पूर्वक भागती दौडती रहती और फिर उस छोटे बच्चे के साथ जो उसका प्रशिक्षक भी था बाल का खेल शुरू होता बालक बाल फेंकता और साई गीता सूंड से उठा कर वापिस लाती लेकिन कभी-कभी मौज मस्ती के मूड में वापिस लाने के बजाय वह बाल लेकर भाग जाती उस छोटे से बालक को जो उसका खेल का साथी, प्रशिक्षक और साथ ही रखवाला भी था, उसे पकड़ने के लिए दौड़ना पड़ता यह नन्हा सा संरक्षक उस खेल और उस क्षण की सुंदरता का आनंद लेने के बजाय दुर्भाग्यवश अपनी रक्षिता की अनुशासनहीनता पर विचलित हो जाता उसे छड़ी से सजा देता कई बार वह उसकी सूंड पकड़कर भी खींचता आखिर वह भी बच्चा ही तो था साई गीता उस समय बहुत छोटी थी और उसका वजन भी कुछ ही किलोग्राम था
लेकिन कहानी यहीं समाप्त नहीं होती इन घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी भक्तगण इनकी सूचना सर्वोच्च स्तर पर देते-स्वामी उस बालक ने साई गीता को कीचड़ में फेंक दिया आदि,आदि । स्वामी हर बार कहते, उस लडके को बुलाओ उसको सजा दी जानी चाहिये और जब लडका आकर क्षमा याचना करते हुए वादा करता स्वामी आगे ऎसा नहीं करूंगा स्वामी उसे माफ कर देते लेकिन क्योंकि यह तो उसकी आदत हो गई थी वह किसी दिन फिर साई गीता की पिटाई कर देता और तब साई गीता दौड़ती हुई मंदिर आती तथा साक्षात्कार कक्ष, भजन मंडप या बैठक, जहां कहीं भी स्वामी हों उनके पास पहुंच जाती उसके पीछे-पीछे ही महावत भी दौड़ा आता और बिना पूछे ही साई गीता की अनुशासनहीनता की शिकायत करने लगता साई मां तो सर्वज्ञ हैं स्वामी लड़के को उसकी गलती के लिए डांटते और अपनी प्यारी बेटी को सांत्वना देते । कुछ वर्षों बाद साई गीता बड़ी हो गई और सहज ही महावत द्वारा अकारण ही किये गये किसी भी दुर्व्यहार का बदला ले सकती थी लेकिन उसने ऎसा कभी नहीं किया वह तो केवल साई मां की शरण में पहुंचती । गीता - साई की सर्वकालिक चहेती
चिदंबरम याद करते हैं, वे सुनहरे दिन थे । उन दिनों दर्शन जैसी कोई बात ही नहीं थी, केवल साक्षात्कार स्वामी प्रत्येक व्यक्ति को साक्षात्कार के लिए बुलाते। त्योहारों के अलावा भक्तों की संख्या बहुत ही कम होती - कभी-कभी तो दस से भी कम । जो भी जल्दी आकर पहले बैठ जाता , पहले बुलाया जाता । एक के बाद एक क्रमानुसार सबको साक्षात्कार मिलता। कई बार एक ही व्यक्ति को लगातार कई दिनों तक साक्षात्कार मिल जाता । साथ ही यदि टालना चाहें तो स्वामी किसी भी व्यक्ति को छोड़ भी देते । लेकिन त्योहारों के दिनों में सैकड़ों की भीड़ जुटती, स्वामी हर व्यक्ति को भीतर बुलाते । वस्तुतः यदि किसी को सामान्य दिनों में साक्षात्कार नहीं मिल पाता तो वह त्योहारों के अवसर पर आकर इसका निश्चित लाभ लेता ।निश्चित ही उन दिनों ,भक्तगण अत्यंत भाग्यशाली थे लेकिन सर्वाधिक भाग्यशाली थी स्वामी की लाडली साई गीता । स्वामी के समय का हर खाली पल उसका होता। सुबह की तरह दोपहर को भी , स्वामी उसको प्यार करते और अपने हाथ से खिलाते ।इसके अतिरिक्त भी वह उनके चरण स्पर्श करने और उनका दुलार पाने के लिए इंतजार करती रहती ।इस प्रकार उसको स्वामी के साथ प्रति दिन दो विशेष साक्षात्कारों सहित कई अन्य व्यक्तिगत अवसर मिलते । साई गीता उन दिनों आश्रमवासियों के लिए अनंत आनंद का स्रोत थी । आश्रम का सर्वाधिक मनमोहक शिशु होने के कारण हर व्यक्ति उसको लाड- प्यार करना, दुलारना चाहता । चिदंबरम बताते हैं वस्तुतः छः माह की उम्र तक, हर कोई उसको घुमाने फिराने ले जा सकता था , उसके साथ खेल सकता था । वह किसी को भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाती । स्वामी की तरफ से सबके लिए उसको छूने,पुचकारने की छूट थी । साई गीता सबके लिए थी और स्वामी तक भी सबकी पहुंच थी । हम लोग मंदिर के बरामदे में और कभी-कभी साक्षात्कार कक्ष में भी सो सकते थे । मैं उन आनंद पूर्ण दिनों को कभी भी भूल नहीं सकता । साथ ही, उन दिनों आश्रम में रहने पर हर प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ता था । पानी की बहुत कमी थी । आपको परिवार के साथ पेड़ की छांव में रहना पड़ता और दिन भर की जरूरतों के लिए 3-4 बाल्टी पानी से ही गुजारा करना पड़ता । बहुत ही कम घर उपलब्ध थे । वास्तव में वे कमरे भर थे - बिना स्नानघर का एक कमरा और खिड़की के लिए दीवार में एक छेद और फिर बिजली का न होना , दिन ढलते ही चारों ओर गहरा अंधेरा । कई बार साँप भी कमरे में आकर घड़े के पास सो जाते, लेकिन कभी किसी का अनिष्ट नहीं करते । जो भी हाल हों स्वामी का प्यार भरपूर मिलता, चिदंबरम आनंद पूर्वक याद करते हैं । कोई भी स्वामी के कमरे के पास जाकर पुकार सकता था , स्वामी मुझे घर जाना है । कृपा कर मुझे आशीर्वाद दीजिये । और अधिकतर स्वामी दर्शन तो देते ही , आप से प्रेम पूर्वक बात भी करते । उनके इस दिव्य प्रेम के कारण ही, इतने कष्टों के बाद भी लोग खुशी-खशी पुट्टपर्ती आते और रहते । हम लोग नंगे पैर आश्रम में घूमते और कई बार कांटे भी चुभते । एक बार साई गीता के पैर में भी कांटा लग गया । बच्च़ी ही तो थी , उसके तलवे बड़े कोमल थे और वह दर्द के कारण चिंघाड़ने लगी । पास ही खड़े एक भक्त ने दौड़कर वह कष्ट दायक कांटा निकाला और साई गीता नें उसको पूरा सहयोग दिया । वह आश्रम परिवार की एक सदस्य ही थी ।हर कोई उसको प्यार करता और उसके साथ खेलना चाहता । यह सब सही होते हुए भी , साई गीता थी अपने स्वामी की ही और उनके सान्निध्य में ही सर्वाधिक आनंद में रहती थी ।त्योहारों के अवसर पर उसका आभूषणों से श्रंगार किया जाता । उसे इन अवसरों से बड़ा प्रेम था - आभूषणों और श्रंगार के कारण नहीं इस दिन उसको स्वामी के साथ रहने के लिए अधिक समय जो मिलेगा, इसलिए । साई गीता- दैवी शोभायात्राओं की शान बढाना उसकी नियति थी
वस्तुतः, साई गीता के आगमन के बाद ही पुट्टपर्ती की शोभायात्राएं प्रतिभाशाली बनीं । श्री चिदंबरम याद करते हैं कि पचास के दशक के अंतिम और साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में जब तक साई गीता का आगमन नहीं हुआ था, तमिलनाडु के नगरों में अपनें स्वागत में आयोजित शोभायात्राओं में हाथियों को देखकर स्वामी अत्यधिक आनंदित होते थे । 10 दिसंबर 1958 को स्वामी सुरंदाई की यात्रा पर जाने वाले थे । सुरंदाई पश्चिमी तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले का एक उल्हासपूर्ण नगर है। इस यात्रा के दश दिन पहले ही वहां प्रस्तावित स्वागत समारोह के बारे में स्वामी ने कुछ चुनिंदा भक्तों के बीच चर्चा करते हुए कहा , " सुरंदाई के लोगों में बड़ा भक्तिभाव है । एक छोटा- सा गांव होते हुए भी उन्होंने हाथी की सवारी की व्यवस्था की है " श्री वेंकटरमण और उनके चचेरे भाई ने उनको इस यात्रा के लिए आमंत्रित किया था । वे भी इस यात्रा को याद करते हुए कहते हैं, " हमारे पैतृक गांव का स्वागत समारोह बहुत ही भव्य था । ........ यह मेरे जीवन का अविस्मर्णीय दिन है ।" इसके दो वर्ष बाद स्वामी उदुमलपेट गये । उदुमलपेट भी पश्र्चिमी तमिलनाडु के कोयंबतूर जिले का एक जीवंत नगर है । यहां का स्वागत समारोह भी अपनी भव्यता और चमक-दमक में अद्वितीय था । यहां शोभायात्रा में तीन हाथी थे ।
बीच के हाथी पर अत्यंत आनंदपूर्ण मुद्रा में स्वामी विराजमान थे और आजू-बाजू के हाथियों पर दो व्यक्ति सुसज्जित छत्र लिए बैठे थे । बाला पट्टाभि के जीवन का एक मात्र स्वप्ऩ था ! अपने गृह नगर में स्वामी का भव्य स्वागत करना । अतः जब स्वामी ने हाथी से उतर कर उनकी पीठ थपथपाई और पूछा, बाला पट्टाभि अब तो खुश हो न ! तुम्हारी जीवन भर संजोई इच्छा आज पूरी हो गई ? बाला पट्टाभि भावनाओं से इतने अबिभूत थे कि उनके मुंह से शब्द नहीं निकल पाये । कुछ महीनों बाद ही ,स्वामी नीलगिरी गये-अपने ही नाम की पर्वत माला में स्थित ,घने जंगलो के बीच यह एक सुंदर स्थान है । हजारों ग्रामवासी इक्ट्ठा हुए । स्वामी गरिमा पूर्वक एक भव्य हाथी पर आसीन थे । उनकी शोभायात्रा दो घंटों तक चली । स्वामी के चेहरे पर पूरे समय मनमोहक मुस्कान थी और वे लोगों से फूलमालायें स्वीकार कर रहे थे । पीछे-पीछे लोग मधुर भजन गाते चल रहे थे । यह दृश्य सहज ही भक्तों को आल्हादित कर रहा था । प्रभू की हर लीला एक सुनिश्चित योजना के अंतर्गत ही होती है । और उन दिनों हाथी के प्रति स्वामी का एकाएक आकर्षण कोई साधारण घटना नहीं थी । वस्तुतः , यह तो सुस्पष्ट रूप से ईश्वर की भव्य योजना के अंतर्गत होने वाली घटनाओं का पूर्वगामी संकेत था ।
एक बार जैसे ही साई गीता दृश्य पर आई, स्वामी को अपनी शोभा यात्राओं के लिए किसी और की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुइ वह छोटी बच्ची थी तब भी प्रशांति निलयम की हर शोभायात्रा में आगे ही चलती 1964 से ही उसको यह स्थान प्राप्त हो गया था इस वर्ष दशहरे की शोभायात्रा में पंडितगण इस नन्हे-से चैंपियन के पीछे -पीछे चल रहे थे और उसी समय से, दैवी उपस्थिति में होनेवाले सब बडे समारोहों में उसका स्थान स्थाई रूप से निर्धारित हो गया स्वामी का जन्मोत्सव, शिवरात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी या वार्षिक खेलों का आयोजन - कोई भी समारोह हो, उसको देखते ही भक्तों के हृदय बाग-बाग हो जाते थे उनके चेहरे चमक उठते थे, तत्काल मुस्कान खिल जाती थी और कई तो आनंद के कारण गाने लग जाते ऐसा ही एक गीत 1989 की कृष्ण जन्माष्टमी के दिन डेविड गर्सटन के हृदय से फूट पड़ा ।
स्वामी का शब्द, स्वामी का प्रेम - उसकी एकमात्र औषधि स्वामी को साई गीता के प्रति अत्याधिक लगाव था विशुध्द रूप से इसका कारण था उसके हृदय में स्वामी के प्रति सम्पूर्ण प्रेम 15 वर्ष की अवस्था में, एक बार वह बुखार और जांघ में दर्द के कारण बिस्तर पर पड़ी थी स्वामी ने उसकी देखभाल के लिए एक पशु चिकित्सक नियुक्त किया लेकिन इस डाक्टर की दवाओं से कोई लाभ नहीं हुआ तब स्वामी बोले, वह स्वस्थ हो जायेगी और उठ बैठेगी और निश्चित ही, धीरे - धीरे उसकी शक्ति लौट आई और फिर से वह पहले जैसी ही सजीव हो गई इस बीच जितने भी त्यौहार आये उनकी शोभायात्राएं हाथी बिना निकली स्वामी नहीं चाहते थे कि उसका स्थान किसी अन्य हाथी को दिया जाये । इसी प्रकार, 1996 में उसका नेत्र गोलक बिना कोई प्रत्यक्ष चोट के लाल हो गया उसके संरक्षक, श्री पेद्दा रेड्डी काफी चिंतित थे मैं बहुत डर गया था वे याद करते हैं मैं उसको लेकर पूर्णचंद्र हाल में पहुंचा स्वामी उन दिनों वहीं रहते थे स्वामी ने सुपर स्पेशयलिटी अस्पताल के पैथोलाजी विभाग को आवश्यक जांच करने के लिए कहा उसकी ऐसी हालत देखकर परेशानी होती थी मैं स्वयं पर काबू नहीं कर पाया और स्वामी के सामने ही रोने लगा वे मुझे सांत्वना देते हुए बोले रोते क्यों हो ? बाद में एक आंखों के डाक्टर ने दवा बताई लेकिन उससे तत्काल कोई लाभ नहीं हुआ अतः स्वामी ने सब दवाएं बंद करवा दी और बोले, चिंता मत करो, वह ठीक हो जायेगी और, उनके इन शब्दों से ही वह ठीक हो भी गई और दोनों आंखों से बिलकुल अच्छी तरह देखने लगी । स्वामी और साई गीता- गहरा आत्मीय बंधन स्वामी साई गीता का हर प्रकार से पूरा - पूरा ध्यान रखते थे उन दिनों शाम - सुबह दोनों समय स्वामी उसे स्वयं भोजन देते थे, वे भक्तों को केवल केले ही खिलाने की छूट देते थे भात और चक्रपोंगल वे स्वयं ही खिलाते थे ये उन्हीं की रसोई में पकाये जाते थे साई गीता हमेशा चाहती थी कि साई उसके मुंह में खाना डालें जब कि अन्य लोगों द्वारा दिया गया भोजन वह सूंड से ही स्वीकार करती थी पिछले वर्ष 2006 के दशहरा समारोह के अवसर पर ही सभी ने यह बात अपनी आंखों से देखी इस संबंध में स्वामी की विश्वविघालय के एमबीए के विद्यार्थी साई चरन बताते हैं ।
मुझे वह दिन स्पष्ट रूप से याद है विजयादशमी का दिन था - वर्ष 2006 के दशहरा उत्सव का अंतिम दिन मुझे श्री पेद्दा रेड्डी के साथ साई गीता को मंदिर में ले जाने का अवसर प्राप्त हुआ था ज्योंही हम साई कुलवंत मंडप के पास पहुचें, साई गीता की आंखें स्वामी निवास की ओर ही लगी थी अपने पहियेदार सोफे पर जैसे ही स्वामी उसके पास पहुंच कर उसको कुछ फल खिलाने वाले थे साई गीता की सूंड से लार बहने लगी मैने तुरंत दो सफेद रूमालों से स्वामी के पैर और चोंगे को ढ़क दिया लेकिन स्वामी ने मुझे रूमाल हटा लेने के लिए कहा और, उन्हें हटाते ही मैंने देखा की साई गीता अपनी सूंड से स्वामी के चरणों को प्रेम- पूर्वक चूमने लगी उसके मुंह से लार स्वामी के पैरों पर गिर रही थी लेकिन वे इससे लेशमात्र भी विचलित नहीं थे वह स्वामी के प्रेम की भूखी थी यह साफ नजर आ रहा था बाद में, जब स्वामी ने उसकी सूंड की ओर फल बढ़ाये - क्योंकि वे सोफे पर बैठे थे, तो उसने लेने से साफ इंकार कर दिया स्वामी ने मेरी ओर निगाह डाली और कहने लगे वह मुंह में देने पर खायेगी और स्वामी उठे तथा ठीक उसके बाजू में खड़े होकर सेब और केले उसके मुंह में देने लगे साई गीता का हर्षातिरेक देखते ही बनता था उत्तेजना के कारण उसके बडे-बडे कान फड़फड़ा रहे थे, उसकी आंखें भावातिरेक से अभिभूत थी स्वामी उसको उसी तरह खिला रहे थे जैसे मां अपने बच्चे को खिलाती है यह मां और बच्चे के संबंध का सम्पूर्ण दृश्य था ।
कौन बड़ा है -एक या पच्चीस ? साई गीता और स्वामी के बीच अतुलनीय प्रेम था तथा बचपन से ही - उसकी उम्र कुछ सप्ताह थी तबसे ही, स्वामी ने उसका लालन - पालन बड़े मनोयोग से किया । इसी कारण, साई गीता एक शक्तिशाली एवं भव्य प्राणी बन गई । स्वामी की विश्वविद्यालय के व्याख्याता तथा पूर्व-छात्र, श्री एन० शिव कुमार याद करते हैं कि कई वर्षों पहले संस्था के वार्षिक खेल कूद समारोह के अवसर पर सर्कस से दो हाथी लाये गये । साई गीता के साथ खड़े वे छोटे -से और दयनीय लग रहे थे और साई गीता उनके बाजू में खड़ी बहुत ही भव्य । इसी संदर्भ में , शिव कुमार ने 1988 की एक और रोचक घटना भी याद की ।
“ उन दिनों मैं प्रशांति निलयम में एमबीए की पड़ाई कर रहा था । सप्ताह में निर्धारित दिन शाम को खेल हुआ करते थे ।साई गीता भी नियमित रूप से खेल के मैदान पर आती थी । स्वामी के आदेश थे कि साई गीता के व्यायाम की दृष्टि से उसे रोजाना खेल के मैदान पर ले जाया जाये । अक्सर महावत अपने साथ एक टायर लाता जिसे वह मैदान पर लुढकाता और साई गीता उसको पकड़ने के लिए दौड़ती । लेकिन उस दिन की व्यवस्था भिन्न थी । महावत एक मोटा रस्सा लेकर आया था ।उसने बताया कि स्वामी के आदेशानुसार आज छात्रों और साई गीता के बीच रस्साकशी का खेल होगा । हम लोग उत्तेजित थे । रस्से के एक छोर पर 25 छात्र कतार में खड़े थे और दूसरा छोर साई गीता के पैर में बांधा गया । उस भीमकाय प्राणी के पीछे खड़े , हम लोगों ने रस्से को मजबूती से पकड़ रखा था । हमारा काम था उसको वहां से आगे बढ़ने से रोकना । हमने अपना मोर्चा संभालकर "यस,रेडी” कहा और महावत ने साई गीता को आगे बड़ने के लिए प्रेरित किया -और वह बड़ने लगी । हमने भरसक जोर लगाकर उसको रोकने की कोशिश की, लेकिन वह चलती ही रही । वह इतनी सहज चल रही थी मानो पार्क में टहल रही है और हम सब उसके साथ खिंचे चले जा रहे थे । उसकी शक्ति को देखकर हम सब हैरान थे ।इसी प्रकार ,एक और अवसर पर साईगीता मंदिर में आई , स्वामी उसे फल खिला रहे थे । हमने देखा कि वे उसे नारियल खिला रहे थे - केवल गिरि नहीं , पूरे खोल के साथ । हम लोग भौंचक्के से रह गये । तब स्वामी हमारी तरफ मुड़कर बोले , “उसके दांत बहुत मजबूत हैं । वह पूरे नारियल को मुंह में ही तोड़कर केवल गिरि खा लेती है और खोल बाद में बाहर निकाल देती है ।”
खेल कूद और विद्यार्थी - साई गीता के अन्य मनोरंजन तो ऐसा था साई गीता का पराक्रम, लेकिन वह विवेकशील भी थी । अपनी शक्ती से पूरी तरह अवगत होने पर भी उसने कभी भी इसका प्रमादी प्रदर्शन नहीं किया । और खेल के मैदान पर स्वामी के विद्यार्थियों के साथ तो उसका व्यवहार एसा रहता था जैसे वह उनमे से एक ही हो । श्री पेद्दा रेड्डी कहते हैं, “जब भी मैं उसको प्रायमरी स्कूल में ले जाता तो वह बहुत खुश होती । वह छोटे बच्चों के बीच में रहना पसंद करती और उनमें घुल मिल जाती, उनके साथ आनंद पूर्वक खेलने लगती ।” अर्णब, पृथ्वी और कान्नन को इसका प्रत्यक्ष अनुभव है ।अपने प्रायमरी स्कूल के दिनों की बातें याद करते हुए, वे बताते हैं, “एक रविवार की बात है, अच्छा खुला दिन था। हम लोग नाश्ता करके , एक शानदार दिन की शुरूआत करने के लिए खेल के मैदान की ओर निकल पड़े । साई गीता को वहां देखकर हमारी खुशी और आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा ।तुरंत सभी उसके इर्दगिर्द इकट्ठा हो गये - हमारी प्रधान अध्यापिका और वार्डन भी साथ में थे ।वह हमारे साछ उन्मुक्त और सजीव महसूस कर रही थी ।उसके साथ कुछ ही क्षण बिताने पर हमारा डर दूर हो गया । हम लोग उसको पुचकारने और रसीले फल खिलाने लगे, यह सिलसिला चल ही रहा था कि कुछ साथियों नें फुटबॉल शुरू कर दिया । अर्णब ने जोर की किक लगाई और बॉल साई गीता के पास पहुंच गई । बॉल अब उसके काबू में थी ।वह बॉल को घूर रही थी । हम सब चिंतित थे कि वह इसे कुचल न दे । लेकिन उसने ऐसा नहीं किया,वह तो उसे सूंड से पकड़ कर उठाने लगी....ऐसा लगा जैसे वह उसे मूंह में ही रख लेगी । चिंतावश, हम चिल्लाने लगे। लेकिन हम खुश थे कि दूसरे क्षण साई गीता ने बॉल जमीन पर रखी और उसको एक हलकी-सी ठोकर मारी, और बॉल ठीक हमारे सामने आ गई । अब हम निश्चित रूप से समझ गये थे कि वह भी खेलना चाहती थी ।और ...खेल शुरू हो गया । हम बॉल उसको देते और वह कभी वापिस हमारी तरफ, कभी ऊंची किक मार देती और कभी सूंड मे लपेटकर ऊपर हवा में उछाल देती । यह बड़ी मजे की बात रही । वह जैसे हम में से ही एक थी । यह खेल पूरे पाँच मिनट तक चलता रहा । हम सबको उससे बड़ा प्रेम हो गया । ”
यह हुआ साई गीता के साथ चित्ताकर्षक फुटबॉल का खेल । इसी प्रकार का मजा उसको बास्केट बॉल के खेल में भी आता था । डेनमार्कवासी सुश्री लेन सांचेज क्रिस्पिन याद करती हैं, "वर्ष 1995 के क्रिसमस की बात है , मैं पहली बार स्वामी के दर्शन करने आयी थी। एक दिन शाम के समय मैं साई गीता को भी देखने के लिए गई। हम 5-6 ऐसे लोग थे जो उसके साथ टहलने का इंतजार कर रहे थे। अपने अहाते से निकलकर साई गीता ने सड़क पार की और स्टेडियम में पहुंची। वहां कुछ विद्यार्थी बास्केटबॉल के मैदान में खेल रहे थे। साई गीता उनकी ओर बढ़ी, बॉल झपटी और बास्केट में फेंक दी। अगली बार, उसने बॉल पकड़कर पास ही खड़े विद्यार्थी की ओर फेंकी और यह लो! खेल शुरू हो गया। साई गीता ने प्वाइंट बनाया और झपटकर बॉल पकड़ ली - और ............ अब खेल खत्म । बॉल उसी के पास थी। उसने बॉल को उछालने की हरकत की लेकिन उछालने के बजाय अपनी `बगल´ - अगले पांव और शरीर के बीच में दबा ली और इधर-उधर देखने का नाटक करने लगी मानो बॉल ढूंढ़ रही हो । उसको देखकर सब आनंदित थे और दिल खोल कर हंसे। बहुत ही सुहावना माहौल बन गया था; सूरज की रोशनी से उसकी आंखे चमक रही थीं । कुछ चक्कर लगाने के बाद उसने बॉल जमीन पर रखी और बढ़िया किक लगाई । और ............ फिर फुटबॉल का खेल शुरू हुआ। साई गीता ने पूरी तरह सबका मन जीत लिया लेकिन उसमें सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह थी कि उसे अपनी शक्ति का पूरा-पूरा बोध था और चलते-फिरते या बॉल को उछालते समय इसका बहुत ध्यान रखती थी। उसने खेल-खेल में हमें बहुत दौड़ाया लेकिन कभी भी बॉल को सीधे हमारी ओर फेंका या मारा नहीं । इसी कारण, इन बड़े जानवरों से मेरा डर खत्म हो गया। उसमें मैंने केवल प्रेम ही पाया - और मैं भी सचमुच उससे प्रेम करने लग गई।" श्री एन. शिव कुमार याद करते हैं, "एक बार किसी उत्सव के अवसर पर अलिके और मुद्दनहल्ली के विद्यार्थी पुट्टपर्ती आये। प्रसाद में हर विद्यार्थी को एक-एक संतरा मिला। कुछ ही क्षणों बाद साई गीता मंदिर में आई। स्वामी ने उसको आशीर्वाद दिया ओर साक्षात्कार कक्ष में चले गये। आगंतुक विद्यार्थी साई गीता के पास ही, कुछ ऊंचाई पर बैठे थे। गलती से एक विद्यार्थी के हाथ से संतरा गिर कर साई गीता की ओर लुढ़क गया। उसने तुरंत उसे अपनी सूंड में लपेटा और मुंह के हवाले किया। यह दृश्य देखकर बाकी विद्यार्थी भी उत्तेजित हो गये। वे भी थोड़ा मजा लेना चाहते थे। अत: उन्होंने जान-बूझकर साई गीता की तरफ संतरे लुढ़काने शुरू कर दिये। वह भी खेल में शामिल हो गई और एक के बाद एक संतरा खाती रही। कुछ समय तक यह खेल चलता रहा लेकिन फिर कई लोग एक साथ ही संतरे लुढ़काने लगे और स्थिति बेकाबू हो गई। तभी एक शिक्षक वहां आ गया और इस ड्रामे का अंत हुआ। साई गीता ने भी बच्चों के आनंद में आनंद लिया और विद्यार्थियों के दिल तो बाग-बाग हो गये।
साई गीता - हर क्षण साई के संपर्क में साई गीता बहुत ही जिंदा दिल थी। उसके साथ थोड़ा भी समय बिताकर हर व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कराहट और मन में आनंद ही मिलता। यह उसका स्वभाव ही था। शारीरिक रूप से भी वह बहुत बलवान थी। लेकिन ये उसके व्यक्तित्व के अनुपूरक ही थे। उसको अपनी श्रेणी में बेजोड़ बनाने वाला गुण अलग ही था। श्री सुभाष मलघान - एक भक्त, के शब्दों में कहें तो "साई गीता स्वामी से प्राप्त सम्पूर्ण प्रेम को भरपूर मात्रा में सहज ही बांट देती थी। उसका ध्यान संपूर्णत: और सदैव स्वामी पर ही केंद्रित रहता था। श्री अभिमन्यु कौल, संस्था के पूर्व-छात्रा कहते हैं," वह हम लोगों के लिए `अलार्म घड़ी की तरह थी। हर बार वह स्वामी के आगमन के बारे में कैसे जान जाती थी - यह हमारे लिए एक रहस्य ही है। जैसे ही उसके चिंघाड़ने की आवाज सुनते, हम हॉस्टल से दौड़ पड़ते, और करीब-करीब हर बार हमें भगवान मिलते । अस्सी के दशक के मध्य में घटित एक घटना मेरे मानस पटल पर स्पष्ट रूप से अंकित है। उन दिनों भगवान वृंदावन में थे। उनकी शारीरिक अनुपस्थिति में हम लोगों को शाम के समय खेलना अनिवार्य होता था। ऐसे समय साई गीता भी शाम के टहलने के लिए स्टेडियम में आती। हम सब सामान्यत: उससे `साई राम´ करते और वह प्रेमपूर्वक सूंड उठाकर उत्तर देती। ऐसी ही एक शाम को हम लोग खेल रहे थे और साई गीता भी टहलने में व्यस्त थी। एकाएक खबर फैली कि भगवान आ रहे हैं। यह बिलकुल अप्रत्याशित था। कोई नहीं जानता था कि भगवान कहां और पुट्टपर्ती से कितनी दूर हैं। हम अंदाज लगाते इसके पहले ही हायर सेकंडरी स्कूल के दरवाजे से उनकी गाड़ी आती दिखी। साई गीता उस समय दूसरे छोर पर, प्रायमरी स्कूल के चौराहे पर (वर्तमान में चैतन्य ज्योति संग्रहालय के पास) थी। और जैसे ही `गाड़ी´ पर उसकी नज़र पड़ी वह जोर से चिंघाड़ी। वह बहुत ही सुखी अनुभव कर रही थी। महावत के लिए उसको नियंत्रित करना या रोकना मुश्किल था। हम लोग हैरान थे, वह बच निकली और कार की ओर दौड़ने लगी। आगे की घटना ने मुझे स्तब्ध कर दिया और मैं आश्चर्य से देखता रहा। भगवान की कार स्टेडियम में आ रही थी और दूसरी ओर से वह भारी-भरकम साई गीता दौड़ी आ रही थी। दूसरे ही क्षण, स्वामी की गाड़ी रुकी और वे तेजी से बाहर निकले। अब एक ओर से भगवान दौड़े आ रहे थे और दूसरी ओर से साई गीता। यह दृश्य याद आने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। दोनों मिले, कितना आनंददायक वह दृश्य था। साई गीता भावाभीभूत थी। वह अक्षरश: भगवान से लिपट गई; सूंड से उनको लपेट लिया। स्वामी वास्तव में उसके अगले पैरों और सूंड के बीच में खड़े थे; उसको थामकर, पुचकार रहे थे।
उसको शांत करने में भगवान को करीब 10-15 मिनट लग गये। धीरे-धीरे हम सब विद्यार्थी भी इस दृश्य के नजदीक आ गये; स्वामी लगातार कुछ बोल रहे थे और प्रेमपूर्वक उसको थप-थपा रहे थे। उन्होंने उसे कुछ फल भी खिलाये। हमने देखा कि उसकी लार स्वामी के पूरे चोगे पर गिर रही थी लेकिन वे बिलकुल बेखबर थे। दिव्य प्रेम का कितना मार्मिक प्रसंग था यह । इसे देखकर मैं धन्य हो गया। "मुझे याद है, एक बार भगवान ने हम सबसे पूछा, `क्या तुम समझते हो, मैंने साई गीता को हॉस्टल के सामने क्यों रखा?´ हम लोग खामोश रहे। स्वामी फिर बोले, "इसलिए कि तुम लोग सच्ची भक्ति क्या है, सीख सको। वह मुझे जितना प्यार करती है, उसका लेशमात्र भी तुम पा लो तो तुम्हारा जीवन पवित्रा हो जायेगा ।´" पौराणिक कथाओं को छोड़कर स्वामी के मुंह से कितने भंक्तों की प्रशंसा सुनी है? विगत अस्सी वर्षों में, हजारों भक्तों को उनके प्रेम, उनकी अनुकंपा, उनके सानिध्य का आनंद प्राप्त हुआ है, लेकिन क्या किसी एक भी व्यक्ति के लिए कहा है, "लगन से इसका अनुकरण करो; मेरी इच्छा है कि तुम सब इसके जैसे ही बनो?" लेकिन साई गीता की बात आने पर, हर संभव अवसर पर वे उसके एक-निष्ठ प्रेम को सराहते और लोगों को उसकी होड़ करने के लिए प्रेरित करते। स्वामी को देखकर साई गीता अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं कर पाती। एक बार, स्वामी को सड़क पर देखकर साई गीता का पेशाब निकल गया और स्वामी का चोगा गीला हो गया तथा सड़क पर भी ढ़ेर सारा इकट्ठा हो गया। इसके कारण लड़के लोग उसके पास जाने में संकोच कर रहे थे। स्वामी ने यह रवैया देखकर उनसे यहां तक कह दिया, "यदि तुम उसके पेशाब का एक प्याला पी लोगे तो शायद तुम में भी उसकी भक्ति का कुछ अंश आ जाये।"
साई गीता एक संत ही
थी प्रति दिन स्नान के उपरांत साई गीता अपने ललाट पर विभूति का त्रिपूंडरक बनवाने के लिए उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करती। आमतौर पर यह शिव भक्तों द्वारा लगाया जाता है। "केवल यही नहीं, जैसे ही मैं विभूति लगाता वह अपना मुंह खोल कर ढ़ेर सारी विभूति मांगती। जब तक मैं उसे संतुष्ट नहीं कर देता वह मुंह खुला ही रखती। अब कोई साधारण हाथी राख खाना पसंद नहीं करता; लेकिन साई गीता के लिए यह बहुत मूल्यवान थी। " ये शब्द हैं श्री पेद्दा रेड्डी के। श्री पेद्दा रेड्डी ने स्वामी की इस प्रिय भक्त की बीस वर्षों से भी अधिक समय तक महावत के बतौर सेवा की। उनकी सोच है," वह कोई साधारण जानवर या पालतू पशु नहीं थी; वह तो निश्चित ही एक महान आत्मा थी और साई के सानिध्य के लिए ही जन्म लिया था।" श्री रेड्डी का यह कथन साई गीता के उपरोक्त व्यवहार की पुष्टि करता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात जो साई गीता की न केवल अपनी जाति से बल्कि आम भक्तों से भी अलग पहचान बनाती है, वह है उसका शांति से सर्वाधिक प्रेम। "वह हमेशा अपने रहने के स्थान पर आश्रम जैसी शांति चाहती थी। उसके निवास स्थान के फाटक पर नियुक्त सेवादल के लोगों द्वारा शोर मचाने या जोर-जोर से बातें करने पर, वह छोटी-छोटी झाडियां तोड़कर उनकी ओर फेंकती। लोगों को शांत रहने के लिए कहने का यह उसका अपना तरीका था। वास्तव में, अपने क्षेत्र में अनुशासन बनाये रखने का दायित्व वह स्वयं ही निभाती थी," श्री रेड्डी याद करते हैं। "शोभायात्राओं में उसका व्यवहार सर्वाधिक अनुशासनपूर्ण होता था। वह न तो किसी प्रकार की जल्दी मचाती और न ही कोई बाधा डालती। ऐसा एक भी अवसर नहीं है जब भूल से उसने किसी को कुचला हो। केवल स्वामी को देखकर ही वह उत्तेजित हो जाती; लेकिन तब भी औपचारिक अवसरों पर उसका व्यवहार समझदारी से भरा होता। वह बराबर सबका साथ देती, केवल उसकी आंखें स्वामी को ढूंढ़ती रहती।"
साई गीता का लक्ष्य केवल एक ही था। एक तपस्वी की तरह अपने प्रिय स्वामी के अतिरिक्त उसे किसी अन्य साथी की आवश्यकता नहीं थी। हम जानते हैं कई वर्षों पहले गर्भाधान के लिए उसे जंगल में छोड़ा गया था लेकिन उसने किसी भी नर हाथी को अपने पास आने नहीं दिया। संस्था के सभा भवन में ही विद्यार्थियों के सामने यह रहस्योदघाटन करते हुए, स्वामी ने बताया, "पैरों में जंजीरें बांधकर, बलपूर्वक उसे एक लॉरी में ले जाया गया। जंगल में किसी भी नर हाथी को पास आते देखकर वह शोर करती। वह जंगल से बाहर जाना चाहती थी; अत: दौड़ने लगी। उसके पैर खून से लथ-पथ थे; रात को वृंदावन पहुंच कर उसने दरवाजे को धक्का दिया। आश्रम के संरक्षक श्री राम ब्रह्मन दरवाजे के बाजू में ही सो रहे थे। वे डर गये। मेरे पास आकर, वे बोले, "स्वामी! लगता है कुछ नक्सलवादी लोग आ गये हैं।" मैंने कहा, "नहीं; ऐसा कुछ भी नहीं है; और, आवाज लगाई `गीता!´" जोर से चिंघाड़ कर, उसने उत्तर दिया। जंगल में से रात-भर सड़क पर अकेले दौड़ते-दौड़ते, बेचारी के पूरे शरीर पर चोटें लग गई थीं। वह कृतसंकल्प, मनस्वी और एक-निष्ठ थी। यही उसका जीवन था। उसके जैसा प्रतिष्ठापूर्ण जीवन और किसी ने नहीं जिया।" और तब स्वामी ने पुन: एक गंभीर घोषणा की, "वह शुद्ध ब्रह्मचारी है।" साई गीता की उपस्थिति मात्र – सुखकर निर्मल व्यक्तित्व के कारण ही साई गीता शोभनीय थी और उसके सामीप्य से सबको शांति और आनंद प्राप्त होता था। इंग्लैंड की एक भक्त, सुश्री सूसन हार्डविक बताती है, "1998 में मैं अपनी बेटी शरलॉट को पहली बार स्वामी के दर्शनों के लिए लाई। उस समय वह 17 वर्ष की थी। शरलॉट बिलकुल अंधी थी लेकिन उसे हर स्थान पर स्वामी की उपस्थिति की अनुभूति होती थी। यह उसके जीवन में एक चमत्कार ही था। हम लोग साई गीता को देखने भी गये। साई गीता और स्वामी का एक-दूसरे के प्रति गहरा प्रेम देखकर शरलॉट अभिभूत हो गई। हम लोगों को साई गीता के अहाते में जाने की अनुमति दी गई और शरलॉट ने उसको एक फल भी खिलाया। इस सुंदर प्राणी ने धीरे-से उसके हाथ से वह फल उठा लिया और अपनी सूंड से उसको हल्का-सा धक्का दिया। इस प्रेमपूर्ण कृत्य से शरलॉट की आंखें भर आई इस अनुभव को वह कभी भुला नहीं सकती।"
लंदन की एक अन्य भक्त, श्रीमती मीरा जेम्स कहती हैं, "मेरी 8 वर्ष की बेटी की अकस्मात मृत्यु हो गई थी। उसकी यादगार में अगस्त 2006 में मैं थोड़े समय के लिए प्रशांति निलयम आई। मैं करीब हर दूसरे दिन साई गीता के साथ सैर करने जाया करती थी। मैं अपनी बेटी के चले जाने के सदमें से पार नहीं पा सकी थी। इन सैरों में मुझे उसकी अकस्मात मृत्यु से संबंधित कई प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने में सहायता मिली। वास्तव में, यही मेरी प्रशांति यात्रा की विशिष्टता रही। इसी के लिए मैं इन सैरों को अपने हृदय में संजो कर रखूंगी।"
"आश्रम की शुरूआती यात्राओं में एक बार आश्रम छोड़ने में मुझे अत्यधिक कष्ट हो रहा था," न्यू मैक्सिको, संयुक्त राज्य अमेरिका की रहनेवाली एक भक्त सुश्री अनिका रिका याद करती हैं। "मेरी वापसी यात्रा शुरू ही हुई थी; स्वामी और आश्रम को छोड़ते हए मेरा दिल चूर-चूर हो रहा था। टैक्सी में बैठे-बैठे ही साई गीता को सुबह की सैर करते देखकर मेरा मन प्रसन्न हो गया। मैंने ड्राइवर को गाड़ी धीमी करने के लिए कहा और एक बार फिर मूक निराशा से मेरी आंखें भर आई मैंने दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया; मुड़कर गाड़ी के पिछले शीशे से जितनी दूर हो सके देखती रही और अपना प्रेम और आकांक्षायें उसको देती रही। मुझे यह देखकर आश्चर्य और आनंद की अनुभूति हुई कि प्यारी साई गीता ने सूंड उठाकर मुझे शुभकामनायें दीं। मुझे ऐसा लगा जैसे वह कह रही हो, `चिंता मत करो, साई हमेशा तुम्हारे साथ है - और मैं भी तुम्हें नमस्कार करती हूं - और प्यार भी।´ एक बार फिर मैं रोई; इस बार ये आनंद के आंसू थे; और, मेरी वापसी यात्रा कुछ सहज रही। कइयों के लिए यह कोई बड़ी अनुभूति न रहे लेकन मेरे लिए तो यह महान थी। जिस प्रकार से उसने मेरे प्रेम और आकांक्षाओं का प्रत्युत्तर दिया, मुझे अत्यधिक विशिष्ट और प्रेरक लगा।"
डेनवर, कोलोरेडो की निवासी सुश्री सैली किंबल बताती हैं, "1985 की बात है; मैं दूसरी बार स्वामी के दर्शनों के लिए आई थी। मैं स्वामी द्वारा विद्यार्थियों को दिये गये प्रवचन को सुनकर लौट रही थी। रास्ते में मैं साई गीता को देखने के लिए रुक गई। मैंने उसकी आंखों की ओर देखा और हम दोनों की नजर मिली। उसकी आंखों में देखकर ऐसा लगा जैसे में कोई इंसान से नजर मिला रहीं हूं। श्री रेड्डीने बताया कि हमारे `साई राम´ कहने पर वह प्रत्युत्तर देगी - और अपनी सूंड उठाकर उसने ऐसा किया भी। उसके व्यक्तित्व और उस विशाल प्राणी की शालीनता से मैं द्रवित हो गई। ज्यों ही मैं वहां से चलने लगी, मुझे कुछ हलचल दिखाई पड़ी। लोग आशा कर रहे थे कि स्वामी की गाड़ी उधर से निकलेगी। मैं भी इसी संयोग की प्रतीक्षा में रुक गई और देखा कि साई गीता भी प्रव्याशा में झूमने लगी - उसे पता था कि वे आ रहे हैं। मुझे आशा थी कि वे साई गीता के पास रुकेंगे; दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने उसकी ओर इशारा भी नहीं किया। वस्तुत: वहां से गाड़ी निकलते समय, उनका ध्यान दूसरी ओर था। मैंने मुड़कर साई गीता की ओर देखा। उसकी निराशा दिल तोड़ देनेवाली थी। मैंने उसकी आंखों से आंसू बहते देखे और मैंने स्वामी के प्रति उसके प्रेम की गहराई को महसूस किया। उसका जीवन पूरी तरह उन्हीं पर केंद्रित था। मुझे समझ आया कि उसके दिल में वहां उपस्थित हम सब से अधिक भक्ति थी। उसने मुझे निरपेक्ष प्रेम और भक्ति का अर्थ सिखाया।"
उसके रोम-रोम में, हर क्षण में साई व्याप्त
कुछ वर्षों पहले, पेद्दा रेड्डी की सहायता के लिए एक और महावत बुलाया गया; लेकिन जब तक स्वामी ने उसको मंदिर में बुलाकर आशीर्वाद नहीं दिया, साई गीता ने उसकी सेवायें स्वीकार नहीं की। जब स्वामी ने नये सहायक के लिए विभूति रची तथा उसे आशीर्वाद दिया तब साई गीता मंदिर में उपस्थित नहीं थी, लेकिन किसी-न-किसी तरह, वह यह बात `जानती´ थी। जिस प्रकार हनुमान ने मां सीता द्वारा भेंट किये गये हार का एक मणि भी स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे प्रभु राम के नाम से आवेषित नहीं थे, इसी प्रकार साई गीता भी उन्हीं चीजों का स्पर्श चाहती थी जिन्हें स्वामी का अनुग्रह प्राप्त है। उसे भावी घटनाओं का `ज्ञान´ हो जाता था साई गीता - वह भावी घटनाओं के बारे में `जान जाती´ थी स्वामी के साथ हर समय उसका गहरा समन्वय था। उसे स्वामी के आगमन का `आभास´ सबसे पहले हो जाता था। पेद्दा रेड्डी का कहना है, "एक बार जैसे ही स्वामी की गाड़ी बंगलूर से रवाना हुई साई गीता तुरंत जान गई कि उसके प्रियतम आने वाले हैं।" इन्हीं बातों से सिद्ध होता है कि साई गीता केवल एक पालतू हाथी या स्वामी की साधारण भक्त ही नहीं थी, वह एक प्रबुद्ध आत्मा थी। क्या कोई विश्वास करेगा कि साई गीता ने अपनी मृत्यु का संकेत पेद्दा रेड्डी को पिछली शाम को ही दे दिया था? लेकिन यह सच है; और स्वामी ने हाल ही में एक प्रवचन में इसकी पुष्टि की है। 21 तारीख की शाम को ही उसने पेद्दा रेड्डी को जाहिर कर दिया था कि वह `जाना´ चाहती है। रेड्डी को इस प्रकार की कई घटनाओं की व्यक्तिगत जानकारी है। इसीलिए वे विश्वासपूर्वक कहते हैं, "साई गीता वास्तव में ज्ञानी थी।" "उसे अधिकतर आगे क्या घटेगा, इसका पता रहता था।" श्री रेड्डी आगे बताते हैं, "26 अप्रेल को जब स्वामी कोडईकनाल के लिए रवाना हो रहे थे, उसने सड़क पर उनकी गाड़ी रोक ली। स्वामी ने उसको ढ़ेर-सारे आशीर्वाद दिये, लेकिन उसकी खुशी अल्प-कालिक ही थी। ज्यों ही स्वामी की गाड़ी आगे बढी, दु:खी होकर वह जोर से 3-4 बार चिंघाड़ी। वह "समझ गई थी" कि स्वामी कोडईकनाल जा रहे हैं और कई सप्ताह उससे नहीं मिलेंगे। उसको सांत्वना देने में मुझे कई मिनट लग गये। वह बार-बार बताती रही कि `स्वामी चले गये हैं।´ उसको इस अवसाद से मुक्त करना अत्यंत कठिन काम था। कोडईकनाल जाते समय स्वामी ने बहुत प्रेम-पूर्वक आशीर्वाद दिया लेकिन जब 18 मई को वे लौट कर आये तो उनके चेहरे पर थोड़ी-भी मुस्कान नहीं थी। वे उसकी ओर घूरते भर रहे। उनकी निगाहों में चिंता थी; साई गीता भी निरूत्साह लगी। यह सामान्य बात नहीं थी। मैं भी उस समय इसका कारण समझ नहीं पाया।"
वर्ष 2006 में, स्वामी के जन्मदिन के कुछ पहले ही, साई गीता का नया निवास तैयार हुआ। कांक्रीट से बने इस भवन में सुंदर नक्काशी की गई थी और शानदार रंगों का प्रयोग किया गया था। स्वामी अंदर होते हुए भी, साई गीता इसमें जाने को उत्सुक नहीं लगी। यह बहुत ही असाधारण बात थी। मेरे द्वारा प्रेरित किये जाने पर ही उसने प्रवेश किया। इसके उपरांत भी, रोजाना नये घर में जाने में वह उत्साहित नहीं लगी। कई लोग सोचेंगे कि सीमेंट और कांक्रीट का यह घर उसे भाया नहीं; वह तो रेत और हरियाली में ही प्रसन्न थी। लेकिन वस्तुत: उसे पूर्वाभास था कि निकट भविष्य में ही यह भवन उसका समाधि स्थल होगा।
इसी कारण वह सहज अनुभव नहीं कर रही थी। पेद्दा रेड्डी को वह अपने मन की बात बताना चाहती थी और वैसा ही उसने किया भी। दूसरों के साथ उसका व्यवहार एक साधारण हाथी की तरह रहता लेकिन अकेले में, पेद्दा रेड्डी को वह अपने मन की बात बताती। वे उसके मनपसंद महावत थे; उनके साथ वह पिता जैसा व्यवहार करती थी। पेद्दा रेड्डी के सहायक उसको किसी प्रकार की पीड़ा देते तो वह इंतजार करती और अकेले में उनको पूरी बात `बताती´। "मैं अपने सहायकों से पूछताछ करता और वे स्वीकार करते कि उन्होंने उसको पीटा था। वह इस दुनिया से परे, ऊंचे स्तर पर पहुंची हुई महान आत्मा थी," श्री पेद्दा रेड्डी बताते हैं। साई गीता - अपनी `मुक्ति´ की घोषणा करते हुए श्री पेद्दा रेड्डीबताते हैं, "मृत्यु के पंद्रह दिन पहले से उसने खाने-पीने की चिंता ही छोड़ दी, जैसे कोई सौगंध ले ली हो और चाहती थी कि मैं हमेशा उसके साथ ही रहूं। और, 20 मई को - अपने अंतकाल के दो दिन पहले, आधी रात को जंजीर तोड़कर वह बगीचे में आयी और रेत में खेलने लगी। दूसरे दिन 21 मई को जंजीर को जोड़कर, हमेशा की तरह रात को फिर उसके पैरों में बांधी; लेकिन उसने दूसरी बार भी तोड़ दी - इस बार भोर में 5.30 बजे के करीब। शायद रात-भर वह इससे झूंझती रही। जब मैं सुबह आठ बजे के आस-पास उसको देखने आया तो वह पिछले दिन की तरह ही रेत पर, खेल रही थी। "यह हैरानी की बात थी क्योंकि उसने पहले कभी ऐसा नहीं किया था। कभी शाम को बांधना भूल जाने पर ही वह ऐसा करती थी। बल्कि पिछले दो सप्ताह से काफी प्रलोभन के बाद भी उसने कुछ रागी के लड्डुओं के अलावा वस्तुत: कुछ भी नहीं खाया था और काफी कमजोर हो गई थी। इसके पहले भी करीब पांच महिनों से वह पेट की बीमारी से त्रस्त थी और ठीक तरह खा-पी नहीं रही थी। कई पशुचिकित्सा विशेषज्ञों ने उसका उपचार किया तथा एंटीबायटिक इंजेक्शनों के साथ ही और भी दवाएं दीं। उसके इलाज पर 50 हजार रूपयों से भी अधिक की राशि खर्च हो गई थी, लेकिन समस्या जैसी की तैसी ही बनी रही। दिन प्रति दिन उसके खाने की मात्रा घटती गई। और, पिछले सप्ताह उसकी खुराक नहीं के बराबर हो गई। "उसकी मृत्यु के एक दिन पहले मैंने देखा कि उसके सामने के बायें पैर में दर्द था और वह लंगड़ा रही थी। मुझे लगा अकस्मात ही कोई पत्थर या टहनी वहां फंसी हो। वह बेचैन थी और रोजाना की तरह एक स्थान पर स्थिर नहीं रह पाती थी।
साई गीता - अंत तक एक पहेली "अंतत: 22 मई का वह घातक दिन आया; मैं सुबह 8.30 बजे उसको स्नान के लिए ले गया। नहाते समय वह सामान्य थी; मैं उसके पैर के दर्द को भूल गया था; उसने भी किसी प्रकार की शिकायत नहीं की। लेकिन जैसे ही मैं पानी डालने लगा, दर्द का संकेत करने के लिए एकाएक उसने अपना सामने का बायां पैर ऊपर उठाया। आम तौर पर, वह पैर उठाकर कुछ समय के लिए ऊपर रख सकती थी, लेकिन उस दिन ऐसा नहीं कर सकी। मैं उसके पैर के दर्द का कारण जानना चाहता था। अत: मैंने उसको फिर से पैर उठाने को कहा। इस प्रकार जब चौथी बार उसने पैर उठाया तो वह झटके के साथ बैठ गई। मैं उसके पैर का नीचे का भाग देख पा रहा था लेकिन उसमें कोई खराबी नजर नहीं आई - कोई पत्थर या लकड़ी नहीं, कोई चोट का निशान नहीं। मैंने मन में ही कहा यह तो अंदरूनी दर्द ही है। "पिछले डेढ़ वर्षों में, साई गीता कभी बैठी नहीं थी; रात या दिन, वह हमेशा खड़ी ही रहती। रात के समय भी या तो वह खड़ी-खड़ी ही सोती या कभी दीवार के सहारे टिक कर। इस प्रकार जब वह इनते लंबे समय बाद एकाएक बैठी तो वह उठ नहीं पाई - उसके अंगों ने साथ नहीं दिया। "मैंने क्रेन लाने को कहा; आस-पास कोई क्रेन नहीं थी और आने में समय लगा; फिर भी उसे उठा नहीं पाये। साई गीता का वजन छ: टन था और क्रेन की क्षमता मात्रा दो टन - इससे अधिक क्षमता की क्रेन वहां से 100 किमी की दूरी पर थी। वह भी कुछ तकनीकी समस्याओं के कारण तुरंत रवाना नहीं हो पाई; हमने बंगलूर से क्रेन मंगवाने की कोशिश की लेकिन उसमें भी समस्यायें आईं, उसका टायर भी फट गया; और अंत में जब वह पहुंची तो बहुत देर हो चुकी थी।" ऊपरी तौर पर, कोई हैरान हो सकता है कि उस दिव्य शक्ति ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? उसके प्रिय भक्त के लिए इतनी बाधायें क्यों उत्पन्न हुई? लेकिन विवेकशील पुरूष जानते हैं कि ये बातें दैवी योजना के अंतर्गत ही होती हैं - तथापि उस विशेष क्षण पर, उन्हें स्वीकार करना और समझना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन बाद में जब मनुष्य पूरे घटनाक्रम पर शांतिपूर्वक विचार करता है तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है। साई गीता के साथ भी ऐसा ही हुआ। श्री पेद्दा रेड्डी आगे बताते हैं : "दोपहर 12.30 बजे तक वह उठने की कोशिश करते-करते थक कर चूर-चूर हो गई थी। उसके पैर पिछले डेढ़ वर्षों से मुड़े नहीं थे; अत: दर्द करने लग गये। मैं देख रहा था कि वह चुप-चाप यह सब कष्ट सह रही थी, चिल्लाना नहीं चाहती थी। उसकी आंखों में आंसू थे। हमने शक्तिलाभ के लिए उसको कैलशियम के इंजेक्शन और सैलाइन देना शुरू किया; लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। उसका सिर उसे भारी लगने लगा और धीरे-धीरे लुढ़कने लगा; वह उसे हिला-डुला भी नहीं पा रही थी। फिर उसकी सांस रुकने लगी। घंटे भर के करीब वह इसी हालत में पड़ी रही। फिर छ: बजे के आस-पास उसने शांतिपूर्वक बिदा ली। हमने तुरंत स्वामी को सूचित किया। हमें पता नहीं कि भौतिक रूप से यह समाचार मिलने पर स्वामी की प्रतिक्रिया क्या हुई। लेकिन हम जानते हैं कि रात को करीब 8 बजे स्वामी ने पेद्दा रेड्डी के पास साई गीता को खिलाने के लिए एक पायसम का लड्डू भेजा। यह विशेष रूप से, उनकी निजी रसोई में बनवाया गया था। अपनी 50 वर्ष की अवस्था में, पेद्दा रेड्डी ने कभी भी स्वामी के आदेशों की अवहेलना नहीं की थी लेकिन इस बार वे भारी दुविधा में थे। आखिर मरे हुए हाथी को कैसे खिलायें? डाक्टरों ने प्रमाणित कर दिया था कि उसकी नब्ज रुक गई है। उन्हें और कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया अत: ईश्वर का नाम लेते हुए उन्होंने वह प्रसाद साई गीता के मुंह में डाला और वापिस धीरे से, उसे सफेद कपड़े से ढक दिया। आज तक पेद्दा रेड्डी के लिए यह रहस्य ही बना हुआ है कि आखिर वह प्रसाद उसके पेट में चला कैसे गया? दूसरे दिन सुबह तक उसके बाहर गिरने का कोई निशान दिखाई नहीं दिया। स्वामी के आदेशानुसार, छ: माह पहले तैयार की गई इस इमारत के बीच में 14 फुट X 10 फुट का बड़ा गड्ढ़ा खोदा गया। इसके लिए क्रेन और अर्थमूवर, रात-भर काम करते रहे। "जब सुबह 7.30 बजे स्वामी उस स्थल पर पहुंचे तो मैं अपने आप पर नियंत्रण नहीं कर पाया और रो पड़ा," भावुकता से पेद्दा रेड्डी बोले। "स्वामी ने गाड़ी का शीशा नीचे किया और मेरा हाथ पकड़ लिया।" वे भी बहुत भावुक हो गये थे। हम दोनों उतनी ही गहरी भावनाओं के दबाव में थे। उनके कहने पर मैंने गाड़ी का दरवाजा खोला और उनकी कुर्सी बाहर निकली। वे यथा संभव साई गीता के पास तक पहुंचे और उसके सिर पर विभूति का लेप किया। कुछ क्षण वहां रुक कर, स्वामी अपने हाथ से उसका सिर दबाते रहे, सूंड को थप-थपाते रहे और चेहरे और पैरों आदि पर विभूति डालते रहे; फिर प्रेमपूर्वक उसकी आंखों पर हाथ फेरा। वास्तव में तो उनके कहने पर मैंने उसकी आंखें खोलीं। निदान की दृष्टि से उसका देहांत 15 घंटे पहले हो चुका था लेकिन उसका शरीर अभी भी मुलायम और लचीला था। ऐसा लग रहा था जैसे वह सो रही हो। साधारणतया, मृत्यु के दो घंटे बाद शव बहुत कड़ा हो जाता है; लेकिन उस रोज सुबह भी साई गीता की सूंड सहज ही मोड़ी जा सकती थी और उसकी आंखें मानो साई की ओर देख रही हों।" "आनंदपूर्वक, शांति पूर्वक जाओ" वस्तुत: विद्यार्थियों को प्रवचन देते हुए, स्वामी ने इस बात की पुष्टि की। उन्होंने बताया, "पिछले दिनों साई गीता ने देह त्यागी। लेकिन मैंने उससे कहा, `सुनो, मैं तुम्हारे लिए मंदिर बनवा रहा हूं। उसने आंखें खोलकर मेरी ओर देखा, लेकिन वह बहुत अशक्त थी। वह कुछ भी नहीं कर सकती थी; थोड़े आंसू बहा दिये। उसका अंत आ गया था। मैंने कहां, "तुम जा रही हो ! अच्छा, आनंद से, शांति से जाओ।" इस अवसर पर उनकी धर्म माता - सुब्बम्मा का अंतिम समय सहज ही याद आ जाता है। डॉक्टरों ने उन्हें `मृत´ घोषित कर दिया था लेकिन उनके चेहरे पर एक विशेष प्रकार की दीप्ति दिखाई दे रही थी। इसके कारण लोग उनको श्मशान घाट ले जाने में डर रहे थे। तब बुक्कपटनम के सयाने व्यक्तियों ने कहा, "पंछी अभी उड़ा नहीं है।" स्वामी एक समारोह के उपरांत तिरूपति से लौटे तबतक तीन दिन बीत चुके थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने "सुब्बम्मा," "सुब्बम्मा," दो बार ही पुकारा, उसने आंखें खोलीं। दूसरे ही क्षण उनका हाथ प्रेम से स्वामी का हाथ थामे था। स्वामी ने उनके होंठ छूए और उनका मुंह थोड़ा-सा खुल गया। स्वामी के हाथ से उनके मुंह में पवित्र जल गया और वे मुक्त जीवों की श्रेणी में पहुंच गईं। साई गीता को भी यही गति प्राप्त हुई लेकिन सामान्य दर्शक इसको स्पष्ट रूप से समझ नहीं पाये। साई गीता के पूर्ण रूप से संतुष्ट होने और उसको अंतिम बिदा देने के उपरांत स्वामी ने उस गड्ढे की ओर निगाह डाली। पेद्दा रेड्डी याद करते हैं :
"गड्ढ़े को देखने के बाद उन्होंने मुझे मंदिर आकर साई गीता की पोषाक लेने के लिए कहा। उन्होंने उसका सजावटी कंबल उसे कैसे पहनाया जाये और गड्ढ़े में उसके साथ क्या-क्या सामग्री रखी जानी है - के बारे में भी हिदायतें दीं।" साक्षात ईश्वर द्वारा एक भव्य बिदाई उनके आदेशानुसार, गड्ढे में पहले रेत बिछाई गई, उसके बाद क्रमश: नारियल के पत्ते, केले के पत्ते, साई गीता की पसंद के अन्य छोटे पौधे और अंत में - उसकी सर्वाधिक मनभाती ताजा हरी घास बिछाई गई। इस प्रकार यह गड्ढ़ा साई गीता की मनपसंद सब वस्तुओं की कई तहों का एक विशाल बिछौना बन गया। लेकिन अभी और भी काफी करना था। इन चीजों के ऊपर कई बोरे चावल डाले गये - और उन पर फल, हल्दी और सिंदूर। स्वामी के आदेशानुसार पूरी तैयारी कर, पेद्दा रेड्डी मंदिर गये। स्वामी ने उन्हें साई गीता के जवाहरात निकालने के लिए कहा जो हमेशा उन्हीं के निवास पर रखे जाते थे । स्वामी ने पोशाक के साथ उसको समाधिस्थ करते समय पहनाने के लिए कुछ गहने भी चुने थे। अंत में स्वामी ने उन्हें रेशमी कपड़े देते हुए कहा, "पूरी तैयारी हो जाने के बाद, नहा-धोकर तुम ये कपड़े पहनकर तैयार रहो; मैं भी वहां पहुंच रहा हूं।"
अपने वादे के अनुसार सुबह 10.45 बजे स्वामी उस स्थान पर पहुंच गये। क्रेन की सहायता से साई गीता के 6,000 कि ग्रा भारी शरीर को उठाकर आहाते के दूसरे कोने पर - जहां गड्ढ़ा खोदा गया था, ले जाने के प्रयास चालू थे। स्वामी गाड़ी में बैठे-बैठे, इसकी प्रगति पर पूरा ध्यान रख रहे थे। क्रेन बड़ी होने के कारण, भवन में नहीं पहुंच सकती थी। स्वामी को आये करीब एक घंटा हो गया था। गर्मी का तपता सूरज सबको थका दे रहा था। पेद्दा रेड्डी ने स्वामी के पास जाकर कहा, "यहां धूप बहुत तेज है और उसको ले जाने में काफी समय लग रहा है; आप मंदिर चले जायें तो अच्छा होगा।" लेकिन स्वामी ने तत्काल कहा, "नहीं; मैं अंत तक यही रुकूंगा।" करीब डेढ़ घंटे की भारी जोड़-तोड़ के बाद, साई गीता को उसके लिए विशेष रूप से सजाई गई सेज पर आखिरी बार सुला दिया गया। यह दृश्य देखकर स्वामी भावना से अभिभूत हो गये। उन्होंने अपने प्रिय भक्त के अंतिम दर्शन किये और आशीर्वाद दिये। साई गीता के शरीर पर एक बार फिर हल्दी, सिंदूर डाले गये; कई मालायें डाली गई, ट्रस्ट के वरिष्ठ सदस्यों ने एक बहुत बड़ी माला उस पर चढ़ाई - स्वामी ने विशेष रूप से ऐसा चाहा था। और, अंत में उसको मिट्टी से ढंक दिया गया। इस सबके उपरांत ही स्वामी अपने निवास स्थान पर लौटे।
वह सुंदर भवन - जो छ: महिनों तक उसका घर था, अब समाधि में बदल गया। हमने पेद्दा रेड्डीसे पूछा, "क्या आपने कभी सोचा था कि यह चित्ताकर्षक, भव्य भवन जो स्वामी ने उसके निवास के लिए बनाया था, साई गीता की समाधि बन जायेगा। उनका उत्तर था," हां; जब यह इमारत बन रही थी, इसकी नक्काशी और सजावट को देखकर मेरे मन में विचार आया कि किसी दिन यही उसकी समाधि न बन जाये। उसके पुराने घर को तोड़ते समय एक बार स्वामी नक्शा लेकर मेरे पास आये और कहने लगे, "यह देखो, हम उसके लिए एक सुंदर, बड़ा, स्थायी भवन बनवायेंगे। तब मैं समझ नहीं पाया था कि `स्थायी´ का तात्पर्य वास्तव में `समाधि´ से है। मैं तो यही समझ रहा था कि यहां आने के बाद, भविष्य में उसे बदलना नहीं पड़ेगा।"
साई गीता की याद स्वामी के मन में हमेशा ताजा अपनी सर्वश्रेष्ठ भक्त के बारे में स्वामी ने काफी पहले से ही पूरी योजना बड़े ध्यानपूर्वक तैयार कर रखी थी। इस वर्ष हमेशा की तरह कोडईकनाल से वृंदावन न जाकर 18 मई को ही वे सीधे पुट्टपर्ती चले आये थे। हर कोई इस अप्रत्याशित दैवी निर्णय के बारे में हैरान था; लेकिन चार दिनों में ही स्थिति स्पष्ट हो गई। स्वामी की दृष्टि में उनसे कुछ दिन और रुकने का आग्रह करनेवाले कोडईकनाल के सैंकड़ों और बंगलूर के हजारों भक्तों की तुलना में साई गीता का महत्व कहीं अधिक था। प्रभु की अष्टोत्तरशत नामावली में एक नाम " श्री साई भक्त पराधीनाय नम:" भी है। हनुमान या मीरा की तरह, साई गीता भी मनुष्य के सामने विशुद्ध प्रेम की शक्ति और पराकाष्ठा का उदाहरण प्रस्तुत करती है। और जिस प्रकार भगवान राम ने पूरी तरह उनको समर्पित जटायू को अंतिम समय में अपनी गोद में लिया और स्वयं उसके दाह कर्म आदि सारी क्रियाएं कीं उसी तरह स्वामी ने भी साई गीता को अपनाया। उसके अंतिम क्षणों में वे स्वयं वहां उपस्थित रहे और हर क्रिया को विधिवत संपन्न करवाने के लिए आदेश देते रहे। उसकी अन्त्येष्टि क्रिया के ग्यारहवें दिन, वे समाधि स्थल पर पुन: पधारे और पेद्दा रेड्डी से समाधि पर केले, सेब, रागी के लड्डू और मिठाई चढ़ाने के लिए कहा। बाद में स्वामी के आदेशानुसार यह पूरी सामग्री नारायणों में बांटी गई और गोकुलम में गायों को खिलायी गई । सचमुच, स्वामी के हृदय में जो स्थान इस हाथी-भक्त ने प्राप्त किया, वह और कोई नहीं पा सका। एक वरिष्ठ साई भक्त, राजा रेड्डी का कथन है, "यदि स्वामी `सक्रिय प्रेम´ हैं तो साई गीता `सक्रिय भक्ति´ है। राजा रेड्डी साई गीता को करीब पांच दशक से देखते आ रहे थे। उनके सामने ही वह शिशु से एक उत्कृष्ट एवं गौरवशाली भक्त के रूप में बड़ी हुई। साई गीता के बारे में लिखी एक कविता में वे कहते हैं :
साई गीता - महान् आदर्श और प्रेरणा का स्रोत बंगलूरवासी भक्त स्मृति रथ कहती हैं, "प्रेम न तो मरता है न ही इसका अंत होता है। देह का अंत हो जाने पर भी सच्चा प्रेम कैसे अमर हो जाता है - यह साई गीता ने हमें सिखाया है।" प्रेम की भाषा को शब्द नहीं चाहिये; वह मूक होते हुए भी दिल और दिमाग पर एक अमिट छाप छोड़ता है और उसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से होती है। पूरे विश्व में, कैलिफोर्निया से केनबरा तक फैले साई समुदाय ने जिस प्रकार साई गीता को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की वह इस तथ्य को पूरी तरह उजागर करती है। साई गीता की याद में भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक साई भक्तों ने विशेष आध्यात्मिक सभायें आयोजित कीं; मलेशिया में विशेष कार्यक्रमों के अंतर्गत पावर प्वायंट पर प्रदर्शन और छोटे बच्चों द्वारा विशेष कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये; उसके स्वर्गवास के ग्यारहवें दिन हैदराबाद के साई युवकों ने नारायण सेवा का आयोजन किया; कतार में बाल विकास बच्चों ने उसके सम्मान में एक विशाल कार्ड बनाया; कनाड़ा के सत्य साई स्कूल के बच्चों ने कई सुंदर चित्र बनाये। वस्तुत: हर साई भक्त ने अपने-अपने तरीके से प्रभु की इस उत्कृष्ट भक्त के प्रति अपना प्रेम और सम्मान व्यक्त किया। पूणे, भारत की निवासी साई भक्त सुश्री जूली चौधरी ने इस मूक भक्त को श्रद्धांजलि स्वरूप यह सुंदर कविता लिखी :
पूणे, भारत की निवासी साई भक्त सुश्री जूली चौधरी ने इस मूक भक्त को श्रद्धांजलि स्वरूप यह सुंदर कविता लिखी :
संस्था के विद्यार्थियों को नीतिदर्शन की कक्षा में प्रवचन देते समय स्वामी 15 मिनट तक साई गीता के प्रेम और भक्ति पर चर्चा करते हुए, अंत में बोले, "यदि तुम मेरे प्रति साई गीता के प्रगाढ़ प्रेम को स्मरण कर, उस पर मनन कर सको और ऐसे पवित्र और महान विचार विकसित कर सको तो मैं स्वयं तुम्हें अपने हृदय में स्थान दूंगा, तुम्हें और कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं।" अस्पताल, जल परियोजनाएं या शिक्षा संस्थान, हम स्वामी के किसी भी कृत्य के बारे में सोचें वे विश्व समुदाय के अनुकरण के लिए आदर्श स्वरूप हैं। इसी प्रकार साई गीता की अमर कथा भी मानव समाज के सामने एक सशक्त और गंभीर लक्ष्य प्रस्तुत करती है - और यह दैवी इच्छा की अभिव्यक्ति ही है। इसके अनुकरण से मनुष्य आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंच कर स्थायी शांति और आनंद प्राप्त कर सकता है।
अस्पताल, जल परियोजनाएं या शिक्षा संस्थान, हम स्वामी के किसी भी कृत्य के बारे में सोचें वे विश्व समुदाय के अनुकरण के लिए आदर्श स्वरूप हैं। इसी प्रकार साई गीता की अमर कथा भी मानव समाज के सामने एक सशक्त और गंभीर लक्ष्य प्रस्तुत करती है - और यह दैवी इच्छा की अभिव्यक्ति ही है। इसके अनुकरण से मनुष्य आध्यात्मिक ऊंचाइयों पर पहुंच कर स्थायी शांति और आनंद प्राप्त कर सकता है। हार्ट टू हार्ट टीम |
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पहली कड़ी - अंक - ०१
नवम्बर २००८ |
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